दिल्ली शहर, जून का महीना , दिन के 12:30 बज रहे हैं , सूरज मानो धरती को गोद में लेकर बैठा हो, गाड़ियों से भड़कता सा धुंआ निकल रहा है , हर तरफ़ से केवल उमस और गर्मी ही हाथ फैलाए खड़ी है।
ऐसे माहौल में जब सड़कों पर गिने – चुने लोग दिख रहे हैं, दूर से एक लड़की सूरज को सिर पे सजा कर सामने से चलती हुई आ रही है, दिखने में काफ़ी पतली दुबली सी है, कपड़ों और चेहरे से अच्छे भले परिवार की लगती है। मगर जैसे मोर को ऊपर से देखने पर आंखों को आनंद आता है पर नज़रे नीचे जाते ही उसके गंदे पैर दिखने पर मन ख़राब होता है,
कुछ वैसा ही इस लड़की का भी हाल था, ऊपर से तो यह काफ़ी सुंदर और सहज लग रही थी, मगर नीचे पैरों की ओर नज़र डालें तो इसके जूते अपनी आखिरी सांस भर रहे थे।
पर जैसे आपके कपड़े और जूते आपकी पहचान नहीं होते, वैसे ही ये लड़की भी एक चमक सी अपने चेहरे पर लेकर चल रही है। कान में इयरफोंस, हाथ में फ़ोन, माथे से पसीना टपकते हुए गालों तक का सफ़र तय कर रहा है और मुंह पर लगे मास्क में जाकर समा रहा है।
कम से कम 3 किलोमीटर पैदल चलने के बाद वह लड़की एक चौड़ी सी गली में घुस गई, गली में थोड़ी छांव होने के कारण लड़की ने एक लंबी सांस ली और फ़िर दो कदम चलकर एक सफ़ेद रंग के मकान में घुसने लगी मकान के बाहर एक बोर्ड लगा है जिसपर लिखा है माइंड अवेयर क्लिनिक।
अंदर घुसते ही मानों स्वर्ग सा अनुभव हुआ हो, ठंडी हवा का एहसास , सारी थकान एक बार में उतरती हुई पैरों से निकल गई हो।
अंदर जाकर उसने किसी की तरफ़ देखा और मुस्कुराई, सामने से लगभग 25 -26 साल की लड़की, बड़ी सी मुस्कान चेहरे पर लेकर बोली, “ हैलो”
उसकी बात सुनकर इसने भी जवाब दिया मगर बहुत धीमी आवाज़ में, “हाई समीक्षा” ।
समीक्षा ने कहा, “आओ बैठो अंदर” , ऐसा बोलकर वो एक कैबिन में घुस गई जहां सामने एक टेबल लगी हुई थी और चार, पहिए वाली कुर्सियां, कमरे में ए. सी. चलने के कारण शिमला जैसा एहसास था।
टेबल के ठीक सामने एक सोफा था, जिसपर आकार उस लड़की ने अपना बैग उतार कर रखा और बैठ गई, समीक्षा अपनी कुर्सी को घसीट कर सोफे के करीब ले गई और ले जाकर उसपर बैठ गई, उसके हाथ में एक फाइल थी,वह उस फाइल को खोलकर उसके अंदर रखे पैन को निकालती है और कुछ देर उसमें देखने के बाद, अपना चेहरा ऊपर उठाती है और पूछती है, “तो कैसी हो तुम पल्लवी”?
पल्लवी ने एक मुस्कुराहट दी और कहा, “ठीक हूं मैं” , पर उसकी मुस्कुराहट देख कर ऐसा लगा जैसे उसके दोनो होंठ थक गए हों पर किसी मजबूरी के कारण ज़बरदस्ती चलते रहने की कसम खा रहे हों,
समीक्षा ने कहा, “तो बताओ कैसा रहा तुम्हारा पूरा हफ़्ता”?
पल्लवी ने थोड़ा रुक कर एक लंबी सांस ली और कहा, “मैं खुश नहीं हूं” , “मैं जीना नहीं चाहती हूं” , दिल करता है कहीं दूर चली जाऊं या फ़िर इतनी दूर की कभी वापस न आ सकूं”
समीक्षा ने बड़े ही शांत भाव से पूछा, “क्या उन लोगों की बातें तुम्हें अभी भी परेशान करती हैं”?
पल्लवी ने ज़मीन की ओर देखते हुए कहा, “हां”, “उनकी बातें मेरे सीने में सूई की तरह चुभती है, बार -बार मुझे अपने आप से नफ़रत होती है, मुझे लगता है मुझमें ही कोई परेशानी थी”।
समीक्षा ने फ़िर पुछा, “क्या तुम मुझे बताओगी की तुम्हारे दिमाग में क्या आता है जब तुम उन सब के बारे में सोचती हो”?
पल्लवी के आंखों से एक बूंद टपक कर उसके जूते पर गिर जाती है, और वह ऊपर देख कर कहती है, “मुझे सारी चीज़े वापस याद आने लगती हैं”, “मेरा दिल कमज़ोर महसूस करने लगता है”, “आख़िर इसमें मेरी क्या गलती थी”? “मैंने क्या किया था क्यूं सब मुझे गलत बोलते हैं”? “मैं तो बेबस थी, नहीं बचा पाई ख़ुद को उस दिन, क्योंकि मैं अकेली थी और वो 6, मैं जब तक होश में थी तब तक कोशिश की, हाथ – पैर मारे ,चीखी, पर उसके बाद क्या हुआ मुझे कुछ याद ही नहीं, बस काला अंधेरा सा छा गया था और आंखें खोलने पर लगा जैसे, वो अंधेरा मेरी ज़िंदगी में छा गया”।
यह कहते ही पल्लवी की आंखों से मानों समंदर ही बहने लगा, समीक्षा ने उठ कर उसे टिशू पकड़ाया और शांत भाव से कहा, “रो लो, जितना रोना चाहती हो, यहां तुम्हें कोई नही रोकेगा”।
कुछ देर रोकर, पल्लवी ने अपने आंसु पोंछे और फ़िर हल्की सी मुस्कान देकर कहा, “हां अब मैं ठीक हूं”,
समीक्षा ने कहा, “क्या आज भी बाहर निकलते ही सबने वैसे ही बात की” ?
पल्लवी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “ये तो अब कभी बदलेगा नहीं, उस बात को पुरे 3 साल हो गए पर अभी भी मेरे आस पड़ोस वालों को मेरे बाहर निकलते ही मानों अजीब सी बेचैनी हो जाती है, अपना सारा काम छोड़ कर सब अपनी बाल्कनी में आ जाते हैं और मुझे तब तक घुरते हैं जब तक मैं अपने घर से निकल कर पुरी गली पार न कर लूं”,
“वो बोलते हैं बहुत कुछ, मैं सब सुनती हूं , सबकी बातें मेरे कान में मानों लाऊड स्पीकर की तरह शोर करती है”,
“देखो फ़िर भेज दिया अकेले, अब अकेले भेजेंगे तो और क्या होगा”? “कपड़े देखो इसके अभी भी शर्मिंदगी नहीं होती इसे, मां – बाप का नाम तो ख़राब कर ही दिया, अब और क्या चाहती है ये”? “किसी तलख्सुदा को ढूंढ कर शादी क्यों नहीं करवाते इसके मां – बाप, कोई अच्छा लड़का तो मिलने से रहा”
“बस यही बातें हैं ,जो रिपीट पर बजती रहती हैं मेरे प्लेलिस्ट में”
समीक्षा ने दुखी मन से कहा, “तुम कहीं और शिफ्ट क्यों नहीं हो जाती”?
पल्लवी ने कहा, “मुझे भागना ही होता,तो अब तक मरने के खयाल से क्यूं भागती? , मुझे पता है मैने कुछ गलत नही किया”। यह बोलकर वह कुछ देर चुप हो जाती है।
समीक्षा अपनी घड़ी की ओर देखती है, 2 बज गए, “चलो ठीक है , आज का सैशन यहीं वाइंड- अप करते हैं, नेक्स्ट वीक इसी टाईम मिलते हैं, ओके”?
पल्लवी लंबी सी मुस्कान लेकर खड़ी होती है और कहती है, “ओके, थैंक यू”।
आईनाआईनाआईनाऔर अपना बैग उठा कर बाहर की ओर बढ़ती है और दरवाज़ा खोलते ही, आग की लपटों की तरह गर्मी फिर उसे घेर लेती है, पर फ़िर भी वह चेहरे पर वही चमक लेकर और कानों में ईयर फ़ोन ठूस कर आगे बढ़ जाती है।
Keep up the good work..🤞🏻
Wish you the best..❣️
Thanks 🙏