जिन्दगी की रफ्तार जब वक्त के रफ्तार के आड़े ना आए तब जिन्दगी खूबसूरत लगती है। लेकिन वक्त के साथ पीछे, और भी पीछे चलते चले जाना हमें ज़ार – ज़ार कर देता है। ‘समीरा’ भी ऐसे ही दौर से गुजर रही थी। छत की ओर टकटकी लगाए कुरेद रही थी वो अपना वजूद, अपना बचपन।

”चुनाव के अभाव में हमारे हिस्से आना वाला दुख भी गहरा हो जाता है हो जाता है।” उसने भी कहाँ चुना था वो दर्द, उसे तोड़ती तो छुअन। ये तो उसके साइंस टीचर का चुनाव था । 7 साल की ‘समीरा’ जब हँसती तब उसके चेहरे पर तारे टिमटिमा जाते, दो छोटे-छोटे सपनीले तारे। वो औरों से अलग थी। स्कूल जाना उसके लिए बोरियत नहीं अपितु उसका सबसे पसंदीदा काम था। लेकिन अचानक से वह स्कूल जाने में कतराने लगी, स्कूल न जाने के बहाने तलाशने लगी कभी पेट दर्द, कभी सर दर्द तो कभी खेलते वक्त लगे खरोच का बहाना। वो अपने साइंस टीचर ‘अभिनव’ से दूर भागती, चाकलेट के बहाने गालो को छूना या टाई ठीक करते वक्त गले पर उसके ॲंगुलियों का फिसलना सुन्न कर देता था उसे। वो डरने लगी थी मानो कोई एक झटके में खींच ले जायेगा उसे दूर….बहुत दूर।

”जब हादसे अपना भेष बदल दोहराने लगे खुद को तो ऐसे में, अतीत से,वर्तमान से भाग जाने को जी चाहता है।” समीरा भी अपने अतीत से भाग जाना चाहती थी, वर्तमान से भाग जाना चाहती थी। वो भाग जाना चाहती थी उस छुअन से, जिसके बोझ तले वो आज भी चिहुक उठती थी।

“हाॅय, हाऊ आर यू?” कहते हुए जब उसके प्रोजेक्ट हेड ‘शेखर’ ने उसका रास्ता रोका था तब कितना डर गई थी वो। उसकी रेंगती नज़रों का अनुमान होते ही वो सिमटने लगती , उसकी रूह चिपचिपी हो जाती और वो बिखर जाती थी जैसे रेत के टीले बिखर जाते हैं हवा के एक झोके से।

‘ अस्तित्व सह लेता है तपिश फिक्र की, अपनेपन की, इंसानियत की लेकिन हैवानियत की तपिश लम्हा- दर- लम्हा राख कर देती है है हमें।’ समीरा अब ‘शेखर’ की हरकतों को नजरअंदाज करते करते थक गई थी। उसे ‘शेखर’ में अभिनव का अक्स नज़र आता। बचे हुए वजूद बचाने के लिए वो दूर चली जाना चाहती थी।ऐसे ही चली आई थी वो बचपन में, बहोत दूर। पापा के तबादले की खबर से समीरा बहुत खुश थी। उसने दबा दिया था अपना डर, कहीं एक कोने में सबसे छुपाकर।

डोरबेल की आवाज से वह वापस वर्तमान में आई। दरवाजा खोला तो सामने गुस्से में हाथ बाॅंधे उसकी दोस्त रिया खड़ी थी। आते ही उसने सवालों की झड़ी लगा दी। कहाँ थी ? दरवाजा खोलने में इतना समय क्यों लगाया ? फोन क्यूँ नहीं रिसीव किया ?…….और भी बहुत कुछ। इतने सवालों को सुनकर समीरा मुस्कुरा दी। लेकिन उसके आखिरी सवाल, ” तबियत कैसी है? आज लीव खत्म हो रही है। सिम्मू तू कल आ रही है ना ?” को सुनते ही समीरा फिर खामोश हो गई।उसने सपाट लहजे में कहा नहीं मैं रिजाइन कर रही हूँ। ” इतना सुनते ही रिया हैरान हो गई। उसने घबराते हुए पूछा, “एनीथिंग सीरियस ?” उसने देखा था समीरा का शेखर के सामने असहज होना। उसने फिर पूछा, “शेखर ने कुछ…. ?” नहीं, कुछ नहीं। बस मुझे वहाँ नहीं र… ह….कहते हुए समीरा का गला भर आया और वो झट से रिया के गले लगकर रो पड़ी।

‘दर्द खामोशी की पैरहन से आजाद होते ही फफक पड़ता है।’ समीरा भी फफक पड़ी। एक- एक कर सब बता दिया उसने | परोस दिया अपना बूँद-बूँद पिघलता अक्स रिया के सामने। वो सिमट गयी थी खुद में, मानो कोई खींच ले जाएगा उसे खुद से । हाॅं,खींच ही लाया था वक्त ने उसे 18 साल पीछे, 26 साल की शक्ल में।

‘जब आँसू, सिसकियों में बँधने लगे और एक बार फिर खामोश होने को तैयार हो तो उन्हें थपथपाना पड़ता है, सहलाना पड़ता है उनके खुरदुरे सतह को ताकि बचाया जा सके उनका होना।’ रिया ने समीरा की हथेली थामते हुए कहा, “सिम्मू भूल जाते हैं ना।” समीरा चौकी, उसने पूछा, “क्या…भूल…जा…ते…जाते…हैं?” उसने कहा “भूल जाते है कि तुम अभी बच्ची हो, कि दूर भागने से सब ठीक हो जाएगा, भूल जाते है कि इस कहानी का अंजाम भी वही होगा। भूल जाओ कि तुम्हारे हाथ में अब कुछ नहीं।आज तुम लड़ सकती हो समीरा अपने लिए, उस बच्ची के लिए जो कभी लड़ी ही नहीं। तुम उसका बचपन सहेज सकती हो समीरा जो आज भी अपनेपन को तरस रही है। जिस बचपन को कहीं कैद कर रखा है तुमने आज उसे तुम्हारी जरूरत है। मिल के लड़ते है ना।”

रिया की बातें सुन समीरा की ऑंखों से दो बूंद छलक आए। उसका अंतर्मन छोटी समीरा की खिलखिलाहट से गूॅंज उठा था। एक बार फिर उसके चेहरे पर तारे टिमटिमा रहे थे, छोटे – छोटे सपनीले तारे।

~ Saumya Srivastav 

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